कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
|
2 पाठकों को प्रिय 335 पाठक हैं |
सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
यह किसका सिनेमा है?
लम्बी बीमारी से उठकर अपने ही नगर की नहर पर उस दिन गया, तो लगा जैसे मेरा पुनर्जन्म हुआ है। चारों ओर अजीब-सा लगता था।
रास्ते में देखा एक नया सिनेमा-घर बन रहा है। जिस मित्र की मोटर में घूमने गया था, उनसे ही पूछा, “यह किसका सिनेमा बन रहा है भाई?"
बोले, “यह रण्डी का सिनेमा है।"
"रण्डी का?'' मुझे हँसी आ गयी। मैंने कहा, “फिर तुमसे अच्छी तो यह रण्डी ही रही कि कमाई से इतना बड़ा सिनेमा बना लिया। तुम्हारी तो दूकान भी अभी तक किराये की है।"
वे भी हँस पड़े, बात पूरी, पर पूरी होकर भी इसने मेरे मन में जिज्ञासा का एक जाल-सा पूर दिया। एक रण्डी ने इस नगर में इतना रुपया कमा लिया कि खा-पीकर वह इतना रुपया जोड़ सकी कि लाख रुपये लगाकर यह बिल्डिंग बना-खड़ी की। कुछ-न-कुछ तो पास भी बचा रखा होगा और डेढ़ लाख जिसके पास है, उसने खाने-पीने में भी तीन लाख खर्चे ही होंगे, तो एक रण्डी ने पाँच लाख रुपये कमाये। इन पाँच लाख के पीछे कितने उजड़े और उदास घरों की कहानियाँ कसक रही हैं, इसे कौन जान सकता है? और यह रण्डी, जो स्वयं सबसे बड़ी कसक कहानी है इस समाज-व्यवस्था की !
|
- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में